आदमी आदमी से जल रहा है
लोग कहते है मौसम बदल रहा है
अंदर मक्कारिया ऊपर भोलापन
ज़हर दिखता नहीं कितना पल रहा है
वो जो कहकर अपना गले लगा रहे हैं
उनके अंदर भी कुछ ना कुछ चल रहा है
संभल जायें अपनी राहें बनाने के लिए
कोई गिराकर ऊपर से निकल रहा है
एतबार का दामन तारतार करके
पर्दे से बाहर आने को फ़रेब मचल रहा है
क़रीब आये है दिल में मुहब्बत लिये
अंदेशा है वहाँ बाजार कोई सँवर रहा है
जिससे पूछो अमन की चाह रखते है वो
मगर कोशिशे करने से मुकर रहा है
वो गूँज हँसी-ठहाकों की कही गुम हो गई
कुछ बची है जो लब पे आकर जम रहा है
चाँद का मज़हब जिक्र से पता चलता नहीं
ईद का है या करवाचौथ का सवाल लग रहा है
ज़िदगी की कौन सी रात आखिरी हो यार
चलो छोड़ो मिट्टी डालो नफरत पे
प्यार बाँटो किस आग में तू जल रहा है !!
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