ज़िंदगी में कोई अपना तो होता
इक आधा-अधुरा सपना तो होता
यकीं किस पर करे अब तू ही बता दें
कि हर चेहरा
पढ़ना आसान होता
वो मुख़्तस दिन थे कितने खुशगुवार
आँखें बंद कर लेते थे सब पे एतबार
कोई शक-शुब्हा
न कोई इल्ज़ाम होता
वक़्त ने बदल दिया दोस्ती का मा'ना(मतलब)
हर तरफ फ़रेब का जाल एैसा फैला
जो सही है वो भी
इसमें पीसता न होता
हर रिश्तों की अपनी-अपनी ज़गह है
फिर भी क्यों क़द्र इसकी समझता कहाँ है
पहचान होती तो
कोई हादसा न होता
नसीहतें-तहज़ीब क्या देगें हम
आने वाली नस्लों को
जब खुद अपना
पाक दामन न होगा !!!
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इक आधा-अधुरा सपना तो होता
यकीं किस पर करे अब तू ही बता दें
कि हर चेहरा
पढ़ना आसान होता
वो मुख़्तस दिन थे कितने खुशगुवार
आँखें बंद कर लेते थे सब पे एतबार
कोई शक-शुब्हा
न कोई इल्ज़ाम होता
वक़्त ने बदल दिया दोस्ती का मा'ना(मतलब)
हर तरफ फ़रेब का जाल एैसा फैला
जो सही है वो भी
इसमें पीसता न होता
हर रिश्तों की अपनी-अपनी ज़गह है
फिर भी क्यों क़द्र इसकी समझता कहाँ है
पहचान होती तो
कोई हादसा न होता
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