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Friday, April 29, 2016

दिल से💕


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दिल स


दिल से💕


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दिल से💕


Friday, April 22, 2016

तुम्हें देखकर एक नग़्म बन रहे हैं

सँजाते-सँजाते शब्द सँज रहे हैं
तुम्हें देखकर एक नग़्म बन रहे हैं
भुला दो मेरे मीत यादों को मेरे
मगर हम तो तेरे लिए जल रहे हैं
न देखो मेरी ओर चाहत से तो भी
दिलो की ये धड़कन यही कह रही है
मेरी जान चाहा है तुमने मुझे भी
ये चाहत की खुशबू मुझसे गुज़र रही है
इशारा ही कर दो तो पहलू मे आ के
बताऊँ ये आँखे किसे तक रही है
समझते हो तुम इतने नादां नहीं हो
कुछ मजबुरियाँ जो तुम्हें डंस रहीं हैं
अमावस की राते नहीं कट रहीं हैं
बिना चाँद के रात यूँ ढ़ल रही है
मेरी जान एक दिन तो दोगे सदा तुम
इसी आश में ज़िदगी कट रही है
भुलाने की फितरत तुम्हारी नहीं है
जताने की आदत हमारी नहीं है
कठिन है डगर मगर चल के देखो
इन्हीं रास्तो पे हमारी खुशी है !!


Monday, April 18, 2016

सजन एसी लगा दो ------

गर्मी के दिन नहीं भाय रे
सजन एसी लगा दो
पंखे और कूलर से काम नहीं चलता
सूरज बहुत झुलसाये रे
सजन एसी लगा दो
सूनी है सड़के और सूनी है गलिया
खिड़की से गर्म हवा आय रे
सजन एसी लगा दो
आम-निमकौड़ी के पेड़ नहीं दिखते
कहाँ पर झूले लगाये रे
सजन एसी लगा दो
आम का शर्बत और ठंडाई भाये
आइसक्रीम बहुत ललचाये रे
सजन एसी लगा दो
टप- टप-टप-टप पसीना टपके
सोलह श्रृंगार बहा जाय रे
सजन एसी लगा दो
बिस्तर भी राजा काँटे की तरह चुभता
तन-मन मोरा जला जाय रे
सजन एसी लगा दो !!


Saturday, April 16, 2016

माँ की पाति----

वो पल भी कितने किमती थे
जब तोतली जु़बा से तुमने
माँ कहकर पुकारा था मुझे
अपनी नन्ही- नन्ही ऊँगलियों से
मेरे हाथो को पकड़ चलना सीखा था तुमने
एेसा लगा था मानो
बसंत का आगमन हुआ हो मेरे जीवन में
कुंहूकने लगी थी मैं एक कोयल की तरह
जैसे पतझड़ के बाद बसंत ऋतु के आने से
नई-नई कोपले पेड़ों पे आ जाती हैं
वैसे ही मन के विरानो मे कही
हरियाली ने जन्म ले लिया था
उस लम्हें को मैं कसकर थाम लेना चाहती थी
मगर वह रूका नही,आगे बढ़ चला
पहली बार जब तुम स्कूल गये
किताबो के बोझ से झुका तुम्हारा कंधा देख
सिहर उठी थी मैं
नाजुक ऊँगलियों को पकड़
जब लिखना सिखाती थी तुम्हें
और तुम कहते ,माँ दर्द हो रहा है
दिल करता हटा दूँ किताबों का बोझ
तुम्हारे कोमल मन-मस्तिष्क पे से और उड़ने दूँ
खुले आसमानों मे बगैर पंखो के तुम्हें
देखूँ तो सही होंठों पे कैसी मुस्कान थिरकती है
मगर संभव नहीं था वक़्त को रोक पाना
सभी भाग रहे थे और साथ-साथ तुम भी
अगर न भागते तो
पिछड़ जाते जीवन के दौड़ में तुम
एक माँ ये कैसे सहन कर सकती थी
मैं तुम्हें भगाती रही और तुम भागते रहे
कितनी बार गिरे,चोटे आई,दर्द भी हुआ तुम्हें
मगर मैंने तुम्हें उठाया नहीं,सहारा नहीं दिया
तुम्हारी नाराजगी तुम्हारे आँखो में
साफ झलक आयी थी
मेरे मातृत्व को सर्सरी निगाहों से
निहारा था तुमने,मगर कोई शब्द नहीं आते थे
कहने सो कुछ कह नहीं पाये तुम
आज मैं बताती हूँ तुम्हें,क्यो किया था मैने ऐसा
मैं नहीं चाहती थी तुम्हें हारते देखना
नहीं चाहती थी तुम्हें किसी के सहारे चलते देखना
मै रहूँ तब भी ना रहूँ तब भी
क्या बुरा चाहा था मैंने
तुम्हारी बातों में आज भी मेरी
निष्ठुरता की झलक दिखाई पड़ जाती है
जब तुम लोगो से ये कहते हो
मेरी माँ थोड़ी कड़ी स्वभाव की है
मै ज़िंदगी के अंतीम पड़ाव पे हूँ और तुम पहले
ना तुम मुझे समझ पाये ना मैं समझा पायी तुम्हें
मगर आज जब तुम्हे बड़ी सी गाड़ी मे घुमते
और बड़े से बंगले मे रहते देखती हूँ
तो लगता है मेरी तपस्या सफल हुई
फिर भी यादो के गलियारो से
होकर गुजरती हूँ तो लगता है कि
क्या ये मेरा निहित स्वार्थ मात्र था या त्याग
क्योकि जितना दर्द तुमने सहा
उससे कही ज्यादा तकलिफ मुझे हुई
तुम्हे तकलिफ में देखकर !!

**** माँ की पाति****

                     








Thursday, April 14, 2016

मै गंगा हूँ,गंगा मैया

मै गंगा हूँ पवित्र पावनी निर्मल
मेरी धार्मिक मान्यताए भी है
और ऐतिहासिक भी
न जाने कितनी पौराणिक कहानियों पे
मेरा वर्चस्व है
भारत की संस्कृति मे मेरा जन्म कैसे भी हुआ हो
मगर इंसानो की पहली बस्ती मेरे
तट पर आबाद हुई
मै एक माँ भी हूँ गंगा मैया
सदियों से लोग मुझे माता कहते आ रहे हैं
क्योकि अपने पास आने वाले लोगों में
मै फ़र्क नही करती
सभी मेरे बच्चे हैं
मै बाँहे फैलाकर सबका स्वागत करती हूँ
अपने निर्मल जल से मैं
इंसानो का ही नही अपितु
जीव -जन्तु ,पशु- पक्षी  सभी का
पालन-पोषण करती हूँ
बगैर किसी आशा के
बगैर किसी चाहत के
मगर क्या मेरे निश्चल प्रेम को
तुम महसुस कर पाते हो
अपनी माँ के आँचल मे
मलमुत्र,गंदगी और ना जाने क्या -क्या
डालकर खुश होते हो
मै तुम्हे जीवन देती हूँ
और तुम मुझे तिरस्कार
मै तुम्हारे लिए समर्पित हूँ
और तुम असमर्पित
मेरा क्या
तुम मुझे खुद से जितना दूर करोगे
उससे कही ज्यादा दूर
मै तुमसे होती चली जाऊंगी
क्योकि मुझे सबकुछ बर्दाश्त है परंतु गंदगी नहीं
कितना फ़र्क है ना तुम्हारी और मेरी सोच में
सोचकर देखा है कभी
तुम्हारे प्रेम मे अभिमान है
और मेरे प्रेम मे त्याग
मत बर्बाद करो मुझे
तुम्हारे लिए ही कहती हूँ
मुझे मिटाकर तुम भी नही बच पाओगे
खुद से प्यार है तो मुझे रहने दो
स्वच्छ पावन निर्मल
तब कहो प्रेम से सब मिलकर हर हर गंगे !!


Tuesday, April 12, 2016

सिर्फ एक नारी है तू बस......

ज़िंदगी मे उसके कुछ ख़ास नहीं था खोने को
हरपल एक मीठा- सा दर्द का एहसास
मगर था होने को
उस एहसास से भी वो लड़ती रही हरपल
बुझने ना दिया हौसले का दिया आँधी मे भी
संघर्ष करती रही अकेली
अपने वजूद के साबित होने को
पतझड़,सावन,बसंत,बहार अाते रहे,जाते रहे
और वो डुबकी लगाती रही
इच्छाओ के समन्दर से पलपल कुछ लेने को
इस मुंतशिर ज़िंदगी में
कुछ ख़्वाब ही थे जो उसके अपने थे
बढ़ता रहा लोगों का काफिला
उसे भी छिन लेने को
बता अये ज़िदगी
साँसे लेना भी कोई गुनाह है क्या
उसपर भी बदस्तूर ज़ारी था हमला
सबसे ज्यादा अपनो का
उसे भी छिन लेने को
सब हैरां थेे इतने पर भी
वो मुस्करा कैसे सकती है
बार-बार ,लगातार जख्म दिये जा रहे थे
आँखो से अश्क बहने को
उससे ज्यादा उसके वजूद से खफा थे लोग
कि एक नारी कैसे हो सकती है सबपे भारी
पुरूषो के इस समाज मे, कहने को
वो सिर्फ बन सकती है माँ बहन बेटी और पत्नी
इससे ज्यादा सोच भी कैसे सकती है
वो कुछ करने को
इस्तेमाल करते रहे लोग उसे
अलग-अलग नाम देकर
इस्तेमाल होती रही वो शौक से
नारीत्व का मान न खोने को
उसके इस समर्पण को लोग उसकी
बेवकुफी समझ उसका तमाशा बनाते रहें
वो हरपल मुस्काती ही रही
अपनो का दिल न टुटे कहीं
उनकी खुशियो मे ही तलाशती रही खुद को
जमीदोज होने को !!!

Monday, April 11, 2016

तेरी साँसो में

तेरी साँसो में बसती है राधा कन्हैया
और मेरी साँसों मे तुम
क्यों आंकते हो फिर
अपनी चाहत को ज्यादा कन्हैया
और मेरी चाहत को कम
जैसे मुस्काते हो,मुरलिया बजाते हो
राधा के प्रेम मे तुम
वैसे मैं भी मुस्काती हूँ,घ्यान लगाती हूँ
तेरी छबि देख निर्गुण
क्या अंतर है
तेरे और मेरे तड़प में
इतना बता जाते तुम
राधा की पुकार सुन दौड़े चले आते हो
मेरी हर पुकार पे अनसुन
ये कैसा है न्याय कन्हैया
इतना तो कह जाते तुम
प्रेम की परिभाषा भी तो तुम्ही  हो
क्यों एक के लिये फूल
दुजे के लिये काँटे रखते हो चुन चुन
एक की चाहत पे दिल मोम सा पिघलता है
दुजे के लिये पत्थर बन जाते हो तुम
एक की चाहत मे एेसे खोते हो कि
सुध भी ना लेते हो तुम
कैसे ये कर पाते हो तुम कन्हैया
मुझको भी सीखा दो ये गुण
बचपन से सीखा है मैने बड़ो से
सबसे ज्यादा अपने हो तुम
मगर सबसे ज्यादा दुख भी तो तुम ही देते हो
दिल को चुरा कर सुन
कहाँ जाकर  ढ़ुंढ़े तुम्हें कन्हैया
कहाँ छिप गये हो तुम
प्रेम की दृष्टि एकबार इधर भी तो डालो
मुक्त हो जाये मोह माया बंधन से हम !!!







Friday, April 8, 2016

माँ के हाथों की रोटियाँ

बदलते वक़्त के साथ
बदल गया है स्वाद
माँ के हाथों की रोटियाँ
कृत्रिमता के इस युग ने
बना दिया बेस्वाद
माँ के हाथो की रोटियाँ
सोंधी-सोंधी खुशबू लिये
मिट्टी के चुल्हे पे सिंकी
गोईठे और कोयले के
सम्मिश्रण पर तैयार की गई
शुद्ध अाबोहवा में 
शुद्धता की परिमाण लिये
स्नेह और ममता से लिप्त
पेट और आत्मा को तृप्त करती
सेहद से भरी माँ के हाथों की रोटियाँ
कहाँ से पाऊँ अब पहले सी-स्वादिष्ट
माँ के हाथो की रोटियाँ
माँ तो वही है प्यार भी वही
फिर कहाँ गायब हो गई 
स्वाद से लबरेज़
माँ के हाथों की रोटियाँ
आज भी माँ बनाती है रोटियाँ
खिलाती है बड़े ही स्नेह से
मगर वो स्वाद नहीं ला पाती
जैसा माँ पहले बनाती थी रोटियाँ
गैस के चुल्हे मे वो बात कहाँ
जो मिट्टी के चुल्हे मे थी
न अब वो अनाज है न आबोहवा
माँ भी क्या कर सकती है
कृत्रिमता हावी हो चुकी है
हमारे मानस पटल पे
और हम दिन ब दिन 
दूर होते जा रहे प्रकृति से
फिर स्वाद क्या और जीवन क्या
कृत्रिमता की गुलामी में
सेहद और जीवन दोनो को दाँव पे लगाती
आधुिकता की चादर में सिमटी ज़िंदगीयाँ
नहीं पा सकती अब वो
माँ के हाथो की रोटियाँ !!!