Search This Blog

Saturday, January 23, 2016

उम्र के अंतिम पड़ाव पे---

देखा था मैंने तुम्हें उम्र के अंतिम पड़ाव पे
कितने अजनबी से लगे थे तुम
न आँखों में मेरी छवि थी
न चेहरे पर अपनापन का भाव
न होंठों पर हँसी
न जुबा पर दिल को छू लेने वाले अल्फ़ाज
शायद तुम्हारी बुढ़ी आँखें
पहचान नहीं पाई थी मुझे
या फिर वो चाहत ही नहीं थी अब मेरे लिये
कितना फ़र्क था दोनों की मोहब्बत में
मैं अबतक तुम्हारी चाहत को लेकर
अपनों के बीच बेगानी बनी रही
और तुमने मेरी चाहत को किनारे कर
बेगानों को अपना लिया था
देखा था मैंने तुम्हें उम्र के अंतिम पड़ाव पे
तुमने वादा किया था
एकबार ज़रूर मिलने आओगे मुझसे
मिले भी,वादा भी पूरा किया
मगर अफ़सोस हमदर्द बनकर ही आये होते
तो दर्द का एहसास न होता
शायद मोहब्बत को रूह से
महसूस नहीं कर पाये थे तुम
तभी तो बुढ़ापे के साथ
मोहब्बत भी बुढ़ी हो चली थी तुम्हारी
देेेखा था मैंने तुम्हें उम्र के अंतिम पड़ाव पे
आह कितनी बेताब थी मेरी चाहत
बस एकबार तुम्हारी ज़ुबा से
मेरा नाम सुनने के लिए
तुमने पुकारा मगर
एहसास करा गये परायेपन का
ज़ुबा से निकले तुम्हारें ये अल्फ़ाज
कि जाओ आईने में देखकर आओ
बुढ़ापे की झुर्रियों को
फिर बात करना मुझसे
तीर की तरह मेरे अंतर्मन को
भेदते चले गये थे
मैं रोती-बिलखती खुद को
आईने के क़रीब ले जाकर देखी
सचमुच बुढ़ापे की झुर्रियों में
तुम्हारी प्रियतना का अस्तित्व मिट चुका था
ज़िंदगी की हक़िक़त आईना बयां कर रही थी
और इन बुढ़ी आँखों में
आँसुओं के सैलाब उमड़ पड़े थे
देखा था मैंने तुम्हें उम्र के अंतिम पड़ाव पे
तुम तो अज़नबी की तरह आये
और वापस लौट गये
उस वक़्त थामा था मुझे मेरे अपनों ने
जिन्हें मैं अबतक बेगाना समझती रही
उन्हीं के कंधे मेरे सहारे बने
मेरे आँसुओ में मेरी चाहत बह गई
और मैं लौट आई अपने अपनों के बीच
उम्र के अंतिम पड़ाव पे !!!

No comments:

Post a Comment