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Saturday, October 15, 2016

महबूब इश्क का ज़माना चाहें

                               
जाम तोडू भी तो आँखों से पिलाना चाहें
मेरी महबूब वही इश्क का ज़माना चाहें

बैठे पहलू में साथ मुझको बिठाना चाहें
इसकदर प्यार बार बार वो जताना चाहें

चाहें करता रहूँ,गुफ्तगू दिन रात उससे
बातों बातों में धड़कने वो बढ़ाना चाहें

बेवजह बात बढाकर के सताये वो कभी
कही गैरों से मिलके मुझको जलाना चाहें

कभी हर दर्द बाँट ले वो फरिश्तो की तरह
मेरे हर जख़्म को सहलाकर मिटाना चाहें

मेरी नाराज़गी भी इक पल गवारा न उसे
रूठ जाऊँ तो गले हँस कर लगाना चाहें

समझना चाहा जितना उतना उलझा हूँ
इस पहेली को अब दिल सुलझाना चाहें

झूका लूँ सिर सजदे में तमन्ना है मेरी
मेरे खातिर जो ख़ैर रब से मनाना चाहें

मेरी खुशिया दामन में उसके बिखरे ऐसे
जैसे कोई चाँद सितारे बिछाना चाहें

                               

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