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Monday, February 1, 2016

कितनी तन्हा थी वो

इस भरी दुनिया में कोई साथी नहीं था उसका
कितनी तन्हा थी वो
उम्र का तक़ाज़ा था या फिर वक़्त की मार
कि इतनी तन्हा थी वो
क्या कसूर था उसका
कहने को बच्चों की माँ थी
फिर भी तन्हा थी वो
हरवक़्त थामकर जिनकी उँगलियाँ
चलना सिखाया था जिन्हें
उनके पास ही वक़्त नहीं था उसके लिए
कितनी तन्हा थी वो
बैठकर तन्हाईयों में निहारा करती थी वो
घर कमरे दरवाजे खिड़कियाँ सड़के और गलियाँ
उसकी आवाज़े दीवारों से टकराकर
वापस उसके पास लौट आती थी
कितनी तन्हा थी वो
बचपन में बिटियाँ पूछती थी उससे
चाँद को देखकर --- ये क्या है माँ ऽऽऽ
वो मुस्कुराती हुई सौ बार बताती थी उसे
चाँद है ---- बेटे ऽऽऽ
आज वो एक सवाल पर झिड़क देती है उसे
कितना बोलती हो माँ,थोड़ा कम बोला करो
कितनी तन्हा थी वो
जिस बेटे के साईकिल के पीछे
भागते-भागते नहीं थकती थी
वो कहता है,छड़ी लेकर चला करो माँ
मेरा सहारा लेकर चलती हो तो लोग हँसते है
कितनी तन्हा थी वो
धन दौलत समाज में इज्ज़त
सबकुछ था उसके पास
बस अपने ही नहीं  थे पास
दो शब्द बातें करने को तरस जाती थी वो
कितनी तन्हा थी वो
कितनी बार उसने सोचा था
खु़द को खत्म कर देने की बात
मगर ईश्वर के दिये अनमोल जीवन का
तमाशा नहीं बनाना चाहती थी वो
इसलिए जी रही थी वो
कितनी तन्हा थी वो
शायद खुदाई को भी उसपे तरस आ गई थी
वो जा रही थी चार कंधो पर
आँखों में एक सुनी प्यास और
दिल में अपनों के साथ का अधुरा अर्मान लिए
क्यों इतनी तन्हा थी वो !!




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