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Monday, August 29, 2016

शर्मसार इंसानियत फिर

                             

शर्मसार इंसानियत फिर
फिर इक बात साबित हुई
दर्द बाँटने वाला
यहाँ नहीं होता कोई

दर्द किसी का देख यहाँ
आँसमां फटा धरती रोई
इंसान तमाशबीन बना रहा
ज़मीर थी उसकी बिलकुल सोई

थम जा बस इंसान यही पे
सरकार तो दोषी है ही
दर्द किसी का देख
इक दिल नहीं पसीजा
लालत है बेदर्द दुनिया तेरी

इक गरीब लाचार मृत जिस्म
कंधे पर रक्खा भारी
गिरता उठता कभी संभलता
चलता जाता दूर कही

थका-हारा भूखा-प्यासा बढ़ता
दिल पे रख पत्थर भारी
नजरें बचा भीड़ हट जाती
हाय रे इंसान ??????
तेरी फितरत कितनी प्यारी

चलता जा ओ गरीब तू
कोई चित्कार तेरी सुनेगा नहीं
भरते को ही भरते सब हैं
गरीब की झोली हरदम खाली

कोई बंधू साथी मसीहा
मदद को ना आया तेरी
ये तो तेरी प्रियतमा थी
बोझ उठाना है तुझे ही

ये दुनिया की रीत है पगले
आँसू उसको मिलते हैं
जिनकी कीमत कौड़ियो की रख
इंसां ही इंसां की लगाते हैं

कैसे कहे इंसान है हम
गर है तो ??????
मुहब्बत का जज्बा जिंदा रहने दो
कि जमीर कभी धिक्कारे नहीं
इतनी तो शराफत रहने दो

कल अपनी बारी आये तो
कोई हाथ मदद को आगे बढ़े
बाँट ले दर्द इक भी इंसां
क्योंकि ???????
आज मेरी तो कल तेरी बारी

                                   






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