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Wednesday, January 13, 2016

कब्र,मकां या "घर"

ईंट और रेत से कब्र और मकां बनते हैं
एक घर प्यार की दिवारों से ही बनता है
नींव एतबार का पड़ता है हमेशा उसमे
वफ़ा से मंज़िले दर मंज़िले बढ़ता जाता है
स्नेह की ईंट से घर संवरता जाता है
प्रेम के रेत से ये और निखरता जाता है
एहसास की ख़ुशबू से सींचे तो ख़ुशहाली आती है
घर के हर कोने में हरियाली छाती है
समर्पण के अमृत से घर की मज़बूती बढ़ती है
प्रिय के प्रेम से आँगन की तुलसी बढ़ती है
दोनों की चाहत से घर का संसार फलता है
पवित्र इस बंधन से ही हर मकां एक घर बनता है!

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