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Friday, April 8, 2016

माँ के हाथों की रोटियाँ

बदलते वक़्त के साथ
बदल गया है स्वाद
माँ के हाथों की रोटियाँ
कृत्रिमता के इस युग ने
बना दिया बेस्वाद
माँ के हाथो की रोटियाँ
सोंधी-सोंधी खुशबू लिये
मिट्टी के चुल्हे पे सिंकी
गोईठे और कोयले के
सम्मिश्रण पर तैयार की गई
शुद्ध अाबोहवा में 
शुद्धता की परिमाण लिये
स्नेह और ममता से लिप्त
पेट और आत्मा को तृप्त करती
सेहद से भरी माँ के हाथों की रोटियाँ
कहाँ से पाऊँ अब पहले सी-स्वादिष्ट
माँ के हाथो की रोटियाँ
माँ तो वही है प्यार भी वही
फिर कहाँ गायब हो गई 
स्वाद से लबरेज़
माँ के हाथों की रोटियाँ
आज भी माँ बनाती है रोटियाँ
खिलाती है बड़े ही स्नेह से
मगर वो स्वाद नहीं ला पाती
जैसा माँ पहले बनाती थी रोटियाँ
गैस के चुल्हे मे वो बात कहाँ
जो मिट्टी के चुल्हे मे थी
न अब वो अनाज है न आबोहवा
माँ भी क्या कर सकती है
कृत्रिमता हावी हो चुकी है
हमारे मानस पटल पे
और हम दिन ब दिन 
दूर होते जा रहे प्रकृति से
फिर स्वाद क्या और जीवन क्या
कृत्रिमता की गुलामी में
सेहद और जीवन दोनो को दाँव पे लगाती
आधुिकता की चादर में सिमटी ज़िंदगीयाँ
नहीं पा सकती अब वो
माँ के हाथो की रोटियाँ !!!







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