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Tuesday, April 12, 2016

सिर्फ एक नारी है तू बस......

ज़िंदगी मे उसके कुछ ख़ास नहीं था खोने को
हरपल एक मीठा- सा दर्द का एहसास
मगर था होने को
उस एहसास से भी वो लड़ती रही हरपल
बुझने ना दिया हौसले का दिया आँधी मे भी
संघर्ष करती रही अकेली
अपने वजूद के साबित होने को
पतझड़,सावन,बसंत,बहार अाते रहे,जाते रहे
और वो डुबकी लगाती रही
इच्छाओ के समन्दर से पलपल कुछ लेने को
इस मुंतशिर ज़िंदगी में
कुछ ख़्वाब ही थे जो उसके अपने थे
बढ़ता रहा लोगों का काफिला
उसे भी छिन लेने को
बता अये ज़िदगी
साँसे लेना भी कोई गुनाह है क्या
उसपर भी बदस्तूर ज़ारी था हमला
सबसे ज्यादा अपनो का
उसे भी छिन लेने को
सब हैरां थेे इतने पर भी
वो मुस्करा कैसे सकती है
बार-बार ,लगातार जख्म दिये जा रहे थे
आँखो से अश्क बहने को
उससे ज्यादा उसके वजूद से खफा थे लोग
कि एक नारी कैसे हो सकती है सबपे भारी
पुरूषो के इस समाज मे, कहने को
वो सिर्फ बन सकती है माँ बहन बेटी और पत्नी
इससे ज्यादा सोच भी कैसे सकती है
वो कुछ करने को
इस्तेमाल करते रहे लोग उसे
अलग-अलग नाम देकर
इस्तेमाल होती रही वो शौक से
नारीत्व का मान न खोने को
उसके इस समर्पण को लोग उसकी
बेवकुफी समझ उसका तमाशा बनाते रहें
वो हरपल मुस्काती ही रही
अपनो का दिल न टुटे कहीं
उनकी खुशियो मे ही तलाशती रही खुद को
जमीदोज होने को !!!

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