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Saturday, April 16, 2016

माँ की पाति----

वो पल भी कितने किमती थे
जब तोतली जु़बा से तुमने
माँ कहकर पुकारा था मुझे
अपनी नन्ही- नन्ही ऊँगलियों से
मेरे हाथो को पकड़ चलना सीखा था तुमने
एेसा लगा था मानो
बसंत का आगमन हुआ हो मेरे जीवन में
कुंहूकने लगी थी मैं एक कोयल की तरह
जैसे पतझड़ के बाद बसंत ऋतु के आने से
नई-नई कोपले पेड़ों पे आ जाती हैं
वैसे ही मन के विरानो मे कही
हरियाली ने जन्म ले लिया था
उस लम्हें को मैं कसकर थाम लेना चाहती थी
मगर वह रूका नही,आगे बढ़ चला
पहली बार जब तुम स्कूल गये
किताबो के बोझ से झुका तुम्हारा कंधा देख
सिहर उठी थी मैं
नाजुक ऊँगलियों को पकड़
जब लिखना सिखाती थी तुम्हें
और तुम कहते ,माँ दर्द हो रहा है
दिल करता हटा दूँ किताबों का बोझ
तुम्हारे कोमल मन-मस्तिष्क पे से और उड़ने दूँ
खुले आसमानों मे बगैर पंखो के तुम्हें
देखूँ तो सही होंठों पे कैसी मुस्कान थिरकती है
मगर संभव नहीं था वक़्त को रोक पाना
सभी भाग रहे थे और साथ-साथ तुम भी
अगर न भागते तो
पिछड़ जाते जीवन के दौड़ में तुम
एक माँ ये कैसे सहन कर सकती थी
मैं तुम्हें भगाती रही और तुम भागते रहे
कितनी बार गिरे,चोटे आई,दर्द भी हुआ तुम्हें
मगर मैंने तुम्हें उठाया नहीं,सहारा नहीं दिया
तुम्हारी नाराजगी तुम्हारे आँखो में
साफ झलक आयी थी
मेरे मातृत्व को सर्सरी निगाहों से
निहारा था तुमने,मगर कोई शब्द नहीं आते थे
कहने सो कुछ कह नहीं पाये तुम
आज मैं बताती हूँ तुम्हें,क्यो किया था मैने ऐसा
मैं नहीं चाहती थी तुम्हें हारते देखना
नहीं चाहती थी तुम्हें किसी के सहारे चलते देखना
मै रहूँ तब भी ना रहूँ तब भी
क्या बुरा चाहा था मैंने
तुम्हारी बातों में आज भी मेरी
निष्ठुरता की झलक दिखाई पड़ जाती है
जब तुम लोगो से ये कहते हो
मेरी माँ थोड़ी कड़ी स्वभाव की है
मै ज़िंदगी के अंतीम पड़ाव पे हूँ और तुम पहले
ना तुम मुझे समझ पाये ना मैं समझा पायी तुम्हें
मगर आज जब तुम्हे बड़ी सी गाड़ी मे घुमते
और बड़े से बंगले मे रहते देखती हूँ
तो लगता है मेरी तपस्या सफल हुई
फिर भी यादो के गलियारो से
होकर गुजरती हूँ तो लगता है कि
क्या ये मेरा निहित स्वार्थ मात्र था या त्याग
क्योकि जितना दर्द तुमने सहा
उससे कही ज्यादा तकलिफ मुझे हुई
तुम्हे तकलिफ में देखकर !!

**** माँ की पाति****

                     








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