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Tuesday, May 10, 2016

वो शाम की रवानी थी

वो शाम की रवानी थी या तेरे आँचल की घटा
लहरा दिया था तुमने बहक उठी थी हवा
उफ़ तेरी नज़रो के तीर से घायल हुआ यूँ
तेरी बाँहों में आकर गिरा महक उठी फिज़ा

आहिस्ता आहिस्ता बाँहों का सहारा देकर
मुझे मुझ से जो संभाला  तुमने
आसमां मे बिजली सी चमकी
और असर दिल पे हुआ

अब तो साँसे भी थम जाये तो कोई शिकवा नहीं
रब से माँगी थी ज़रा-सी खुशी बेशुमार मिला

चाँद के उजाले में  जुल्फों की लटे भींगी हुई
ओस की बूँदों-सी जब मेरे चेहरे पे पड़ी
चाँद तूने देखा नहीं
या तुझे फुर्सत ही नहीं
वरना उस रात तू भी ये कहता
वाह तुझे भी क्या चीज तेरी मुक़द्दर से मिला

खुबसूरत है वो जैसे तराशा हुआ ताजमहल
उसकी हँसी झरनें की-सी कलकल
आँखे हैं सागर की गहराई सी
होट गुलाब की पखड़ी-सी कोमल
जिसे फ़ुर्सत से तराशा हो ऊपर वाले ने
चाँदनी रात मे जो करती है और भी घायल
डर लगता है उसके कऱिब जाने से
टूट न जाये कोई सपना जो हकिक़त से मिला

अये चाँद तेरे उजाले की ज़रूरत क्या है
जा छिप जा बादलों में
मेरी  चाँदनी मेरे पास है और उसकी रौशनी भी

आज कह दूँ पूरे कायनात से
कि हाँ मैं मोहब्बत करता हूँ बेपनाह मोहब्बत
ये मुक़द्दर भी मुझे मेरी मोहब्बत से मिला !!











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