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Sunday, June 12, 2016

पर्दे में चाँद

ऐ रात जरा उनसे तू ख्वाहिश जता के पूछ
पर्दे मे चाँद क्यों है जानने का हक़ तो है
नाराज़ है या बात फ़कत दिल्लगी की है या
बेमा'ना चौदहवी के चाँद पर अमावस की रात है

बुनियाद ज़िंदगी की वो हैं
जिसपे खड़ा प्यार का महल
बेहद सहुलियत से कट रहा जीवन का हर सफ़र
हताश होते जब कभी जीवन के डगर पर
उम्मीद का दिया बन जाती है वो हमनफ़स
गुनगुना कर बात कोई कह दे तो अगर
उस नाज़नी के प्यार की बन जाती एक गजल

ऐ रात जरा उनसे तू दर्पण दिखा के पूछ
पर्दे मे चाँद क्यों है जानने का हक़ तो है

बेशक नज़रे बचाकर देखते है हम इधर उधर
न चाहते हुए भी नज़रे उठ जातीं हैं
कुदरत की रची हर खुबसूरत चीज पर
ये इंसानी फ़ित्रत है मोहब्बत नहीं हमसफ़र

ऐ रात जरा उनसे तू नज़रे मिला के पूछ
पर्दे  मे चाँद क्यों है जानने का हक़ तो है

ये ज़िंदगी है बिन मुस्कराये थम जाऐगी
यौवन की हर खुशी तन्हा पड़ जाऐगी
बखुदा एकबार
दिले बेक़रार की धड़कन सुना के पूछ
पर्दे मे चाँद क्यों है जानने का हक़ तो है !!

ख्वाहिश - इच्छा
फ़कत - सिर्फ
बेमा'ना - बेकार,निरर्थक
नाज़नी - सुन्दरी,कोमल
फ़ित्रत - स्वभाव,प्रकृति
बखुदा - खुदा के लिए,भगवान के लिए
दिले बेकरार - प्रेमव्यथा में तड़पता हुआ दिल
बुन्याद - आधार,अस्तित्व

                                           
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